Sunday, 28 September 2014

History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

बाल्य जीवन की कथाएँ 



                आज हम जिस वीर अग्निपुरुष के जीवन के बारे मे जानने जा रहे है, उसका का जन्म प्रसिद्ध चौहान वंश में, विक्रमिये सम्बत्त 1148 वैशाख दिन गुरूवार 24 अक्टूबर को दिल्ली अनागपल तोमर की कनिष्ठ कन्या कमलावती के गर्भ से हुआ था। पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर जी चौहान की राजधानी अजमेर नगरी थी जो की उस समय अपने वैभव और कृति से सोमेश्वर राज चौहान की छत्रछाया में सुसज्जित थी। उस समय सोमेश्वर चौहान की वीरता की कहानी दूर दूर तक फैली हुई थी, उनकी वीरता की गाथा को सुनकर दिल्ली के महाराज अनंगपाल ने उनके और कम्ध्यज्ज्य के बीच हो रहे युद्ध में उन्हें युद्ध में आने का आमंत्रण दिया, कन्नोज के राजा विजयपाल ने भी इस युद्ध में अनंगपाल का साथ दिया, तीनो ने एक साथ युद्ध लडकर विजय हासिल की। इससे दिल्ली के महाराज अन्नाग्पाल इतने खुश हुए की अपनी छोटी बेटी कमलावती का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेस्वर से तय कर दिए। विजयपाल उनके बड़ी बेटी के पति थे। ये तीनो राज्य अब अपने वैभव के साथ अब फलने फूलने लगी थी। अब जब कभी अजमेर पर विपदा आती तो कन्नोज के राजा विजयपाल महाराज सोमेश्वर का साथ देते। एक बार यवन के सेना ने अजमेर पर हमला कर दिया और विजयपाल ने इस संकट के घडी में उनका साथ दिया और दुर्भाग्य वश महाराज विजयपाल की मौत हो गयी। इसके फलस्वरूप उनके बेटे जयचंद्र को कन्नोज का राजा बना दिया गया। चौहान वंश कब से स्थापित हुआ इसका कोई ठीक ठीक प्रमाण तो नहीं मिलता है पर रासो के अनुसार चौहान वंस की उत्पत्ति एक यज्ञ कुंड से हुई जो की दानवों के विनाश के लिए हुई थी। चौहान वंश के 173 वे वंश में बीसलदेव हुए थे उनके राज में ज्यादा कुछ नहीं हुई थी उनके बाद सारंगदेव आये जिन्होंने अजमेर का प्रसिद्ध आना सागर बनवाए,जय सिंह इन्हें के पुत्र थे जो की पृथ्वीराज के दादा जी थे। उस समय केवल चन्द्रबरदाई के जैसे महान कवी ही राज दरबार की शोभा बढ़ाते थे और युद्ध के मैदान में अपना कौशल दिखाते थे। वे अपनी कविताओं के माध्यम से वहां के राजा और प्रजा दोनों का मन जिधर चाहते थे उधर ही फेर देते थे। पृथ्वीराज चौहान बच्चपन से ही न केवल तीर कमान बल्कि भाला , तलवार और शब्द भेदी बाण विद्या में निपुण हो गए थे। श्री राम गुरु जी ने बचपन से ही युद्ध कौशल और रणनीति देखकर ये भविष्यवाणी भी कर दी थी की पृथ्वीराज चौहान का नाम भविष्य में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा। पृथ्वीराज के बाल्य जीवन के बारे में रासो में ज्यादा कुछ नहीं मिलता है।। उस समय राजकुमारों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता था और वहीँ पर उन्हें युद्ध निति और राज पाठ के बारे में शिखाया जाता था। पृथ्वी के गुरु का नाम श्रीराम था। आरंम्भ से ही पृथ्वीराज चौहान ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था इन्होने अपने गुरु श्रीराम से बहुत सारी शिक्षा प्राप्त की थी। पृथ्वीराज चौहान जब गुरुकुल में थे तब भीमदेव ने अजमेर पर हमला कर दिया लेकिन उसे सोमेश्वर जी के हाथों मुंह की खानी पड़ी महाराज सोमेश्वर इस बार भी विजयी रहे। 

इनके बचपन के दोस्त थे निठुर्रय,जैतसिंह, कविचंद्र, दहिराम्भराय, हरसिंह पंज्जुराय,सरंगराय, कन्ह्राराय, सखुली, संजम राय इत्याद्दी के साथ पृथ्वी हमेशा शूरता के ही खेल खेला करते थे। उनमे से कुछ आमुक टिलहे को अमुक गढ़ मानकर वे उनकी रक्षा करते थे और उनमे से कुछ उनको लूटते थे, अक्सर वे ऐसा ही खेला करते थे। इसके बाद वे शिकार खेलने जाते थे। इसी प्रकार से पृथ्वीराज की शिक्षा हुई थी। पृथ्वी के पिता सोमेश्वर राज चौहान जैसे वीर थे वैसे ही वे राजनीती वीसारत भी थे हालाँकि उनकी राज्य केवल अजमेर तक थी पर उन्होंने अपनी राज्य सीमा इतनी तक बढ़ा ली थी ककी उनकी सीमा गुजरात सी जा मिली थी। गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी को उनका राज्य विस्तार अच्छा न लगता था इसलिए वो उनसे अन्दर ही अन्दर इर्ष्या करता था जिसमे पृथ्वी की वीरता की कहानी ने इसमें घी का काम किया। पृथ्वीराज चौहान कभी कभी शिकार खेलते खेलते गुजरात की सीमा तक जा पहुँचते थे, भीमदेव ने तो अपने जासूसों को उन्हें पकड़ कर मार डालने की आज्ञा भी दे रखी थी पर वे सदा ही उनसे बचते चले आये। जब पृथ्वीराज की आयु 13 साल की हुई तो उन्हें राजनीती की शिक्षा देने के लिए उन्हें युवराज का पद दे दिया गया। अपने युवराज काल में ही पृथ्वीराज चौहान ने अपने अद्भभुत प्रतिभा का परिचय दे दिया था। कहा जाता है की पृथ्वीराज चौहान ने केवल 13 की उम्र में जंगल के एक शेर को बिना किसी हथियार के ही मार डाला था। अब पृथ्वी अपने राज महल में ही राजनीती के शिक्षा लेने लगे थे, भीमदेव हार जाने के बावजूद सोमेश्वर और अजमेर नगरी पर अपना राज चाहता था, इसके लिए उसने कई चले भी चली। उसने अजमेर के तरफ दोस्ती का हाथ बढाया, पृथ्वी के मना करने पर भी सोमेश्वर जी ने उन्हें बताया की ये राजनीती है आप अपने महाराज पर भरोसा रखें, अब भीमदेव राजमहल तक आ गया और पीछे से एक गुप्त भेदिया भी ले आया था, उसके जाने के बाद वो भेदिया अजमेर का राजश्री मुहर चुरा कर ले गया, भीमदेव उस राजश्री मुहर का इस्तेमाल वहां का कर बढ़ा कर वहां के प्रजा को अपने राजा के विरुद्ध करना चाहता था।पर जैसे ही पृथ्वी को ये बात पता चली उसने अपने वीर राजपूत दोस्तों पुंडीर,संजम राय, चंदरबरदाई, अर्जुन आदि के साथ गुजरात की ओर चल दिए वहां पर उन्होंने अपना वीरता और बुद्धिमानी का बखूबी प्रदर्शन कर वो राजश्री मुहर अजमेर वापस लाये।

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