Monday, 29 September 2014

History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

दिल्ली पर राज 

दिल्ली में शाषण तोमर वंश के राजा महाराज अनागपल के हाथों पर था, दिल्ली में प्रथम अनागपल ने तोमर वंश की स्थापना सन 733 में की और उस समय से लेकर लगभग बीस राजाओं ने दिल्ली पर शाषण किया। पृथ्वीराज के नाना दिल्ली में अंतिम तोमर वंश के शाषक थे।

       राजा अनंगपाल के समय की कुछ खास घटना की जानकारी नहीं मिलती है, उनके राज्य की स्थापना की भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी, आज जिस जगह पर दिल्ली बसी हुई है पहले यहाँ से दो मील दूर में दिल्ली बसी हुई थी जो की सबसे पहले महाराज युधिस्ठिर ने दिल्ली बासयी थी और समय समय इसका स्थान हर राजाओं द्वारा बदलता चला गया,चंदरबरदाई ने दिल्ली के बारे में लिखा है की जब प्रथम अनंगपाल ने दिल्ली बसाने लगे थे तब उनके कुल के पुरोहितों ने एक खूब लम्बी कील जमीन में गाड़ दी और महाराज से कहा की जबतक ये कील इस जमीन में गडी रहेगी तबतक दिल्ली में तोमर वंश का शासन रहेगा क्योंकि ये कील शेषनाग के माथे से जा लगी है, महाराज अनंगपाल को इस बात पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने वो कील निकलवा कर देखना चाहा जब वो कील निकला गया तब उस कील में सही में खून लगा था, अनंगपाल को इस बात पर बहुत दुःख हुआ की वो बहुत बड़ी बेवकूफी कर गए, फिर उन्होंने दुबारा पुरोहिंतों को बुला कर वो कील जमीन में गढ़वानी चाही पर ऐसा नहीं हो पाया, पुरोहिंतों ने काहा की महाराज मैंने आपका राज्य अचल करना चाहा था पर भगवान् की ही इच्छा नहीं थी अब तोमर वंस के बाद चौहान वंश और फिर दिल्ली में मुसलमानों का शाषन हो जायेगा।

         अब हम पृथ्वीराज के जीवन चरित्र की ओर झुकते है। पहले ही बता चुके है की दिल्ली के शाषक महाराज अनंगपाल की दो पुत्री थी, उन्होंने अपनी कनिष्ठ कन्या कमलावती का विवाह अजमेर के महाराज सोमेश्वर से की थी। परन्तु कुछ इतिहासकारों का मत है की पृथ्वीराज के दादा बीसलदेव ने दिल्ली में आक्रमण कर अनंगपाल को हराया था और इसलिए अनागपल ने दिल्ली और अजमेर के बीच के रिश्तों को मजबूत करने के लिए अपनी कनिष्ट पुत्री कमलावती का विवाह सोमेश्वर राज चौहान से करा दिया था। पृथ्वीराज बचपन से ही कभी अजमेर में रहते थे और कभी दिल्ली में, महाराज अनंगपाल पृथ्वीराज के गुणों पर मोहित रहते थे, उनका कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्हें अपने राज्य के लिए एक योग्य राजा की जरुरत थी, उन्होंने मन ही मन पृथ्वीराज चौहान को ही दिल्ली का महाराज मान लिया था, क्योंकि उन्हें मालूम था की ये भविष्य में एक होनहार मनुष्य होगा। और इसलिए जब वो विर्धावास्था को प्राप्त किये तब उन्होंने बदरिकाश्रम जाकर तपस्या करने के विचार से और दिल्ली का भार उचित हाथों में शौंप कर निश्चिंत होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक दूत अजमेर भेजकर पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का सम्राट बनाने का नेवता भेजा, इसे सुनकर महाराज सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान बहुत ही खुश हुए परन्तु जयचंद्र जो की अनागपल का बड़ा नाती था उसका दिल्ली में पहले अधिकार था, इस कारण से दो राज्यों के बीच झगडा हो जाने का बहुत बड़ा खतरा भी था, इसलिए इस विषय पर विशेष विचार की आवश्यकता पड़ी। पृथ्वीराज ने अपने सभी सामंतों को एकत्र कर महाराज अनागपल का पत्र को पढ़ा गया, और खुद पृथ्वीराज चौहान और सभी सामंतों ने अपना यही मत दिया की महाराज अनागपल के इस मत को ठुकराना नहीं चाहिए और इसे अपना कर्त्तव्य समझ कर पृथ्वीराज ने दिल्ली का सिंहासन को स्वीकार कर लिया, एक ओर महाराज अनागपल जहाँ बहुत खुश हुए वहीँ दूसरी ओर जयचंद्र द्वेष की भावना में जलने लगा। 

            “जैसी होत होत्वयता, वैसी उपजे बुद्धि” के अनुसार न तो पृथ्वीराज और न ही उनके सामंतों ने इस बात पर गौर किया इस कारण से पुरे भारतवर्ष में कितनी बड़ी विपदा आ जाएगी, और अगर हम महाराज जयचंद्र की पृथ्वीराज से द्वेष भावना को भारत का अर्ध्पतन का एक भाग कहे तो ये गलत नहीं होगा। कुछ दिन के बाद ही प्रीथ्विराज चौहान ने अपने कुछ शूरवीर सामंतों को साथ लेकर दिल्ली पहुँच गए, दिल्ली को पृथ्वीराज के महाराज बनने के अवसर पर दुल्हन की तरह सजाया गया, उनके पहुँचते ही दिल्ली में उत्सव का माहोल बन गया और सम्बंत 1168 मार्गशीर्ष शुक्ल 5 गुरुवार को पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के राज सिंघासन में बिठाये गए, दुसरे ही अजमेर और दिल्ली के संयुक्त सेना ने बड़े ही धूमधाम से पृथ्वीराज चौहान की सवारी निकली, चरों ओर “जय जय पृथ्वीराज चौहान” की ध्वनि से सारा माहोल गूँज उठा। सांयकाल के समय दरबार लगा, पृथ्वीराज राजगद्दी में विराजमान हुए, दिल्ली के प्रधान प्रधान अधिकारीयों ने दरबार में आकर जुहार की और अपनी नजरे दी। उसके दुसरे ही दिन महाराज अनंगपाल ने अपनी धर्म पत्नी के साथ बदरिकाश्रम चले गए, और पृथ्वीराज चौहान निति तथा न्यायपुर्वक दिल्ली का राज्य-शाषण करने लगे।

History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

मुहम्मद गौरी आक्रमण


परन्तु शाहबुद्दीन ने इसे अपना अपमान समझा और पृथ्वीराज चौहान से अपना बदला लेने का ठान लिया। एक बार पृथ्वीराज चौहान लट्टूवन में शिकार खेलने गए थे, जब गौरी को इसबात का पता चला तो उसने उसी समय उनपर आक्रमण कर दिया, पर उसे उस बार भी हार का सामना करना पड़ा, उस समय गौरी किसी तरह भागने में सफल हो गया था। 

कुछ समय के बाद अब पृथ्वीराज नागौर मैं थे, उन्हें ये ससमाचार मिला की मुहम्मद गौरी फिर से आक्रमण करने की फिराक में है, इतना सुनते ही पृथ्वीराजने अपनी सेना एकत्र करना शुरू कर दिया, इस वक़्त पृथ्वीराज के पास केवल 8000 सैनिक थी इसलिए उन्होंने दिल्ली अपने नाना अनंगपाल जी से कहलवा कर 4000 सैनिकों को और मंगवा लिया अपनी साडी सेना को तैयार करने के बाद पृथ्वीराज सारुंड की ओर चल दिए और दुश्मन के आने का इंतज़ार करने लगे, इस समय भारत के इतिहास का काफी भीषण समय था क्योंकि विदेशी भारत पर बार बार आक्रमण कर रहे थे और केवल पृथ्वीराज ही उनका अकेला ही मुकाबला कर रहे थे, इतिहासकार के अनुसार कश्मीर के मुसलमान और पंजाब के कुछ भागो के हिन्दू भी पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध मुहम्मद गौरी का साथ दे रहे थे, एक बात तो बिलकुल ही निश्चित है की एक मात्र पृथ्वीराज चौहान के कारण ही कई वर्षों तक विदेशी भारत की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख पाए।

 मुहम्मद गौरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की ओर आगे बढती चली आ रही थी, जिसकी खबर पृथ्वीराज को पहले से थी, पृथ्वीराज ने अपना भेदिया भेज कर जानकारी मंगवानी चाही, भेदिया ने उन्हें जानकारी दी की मुहम्मद गौरी तीन लाख सेना के साथ आक्रमण करने के लिए आ रहा है, उनके सेना में गखर, काबुली,कश्मीरी,हक्शी, आदि तरह के सेना है। यद्यपि पृथ्वीराज पर गौरी ने एक बड़ी सेना के साथ हमला किया था और पृथ्वीराज के पास केवल पंद्रह हज़ार ही सेना थी, इसलिए इस बार पृथ्वीराज को गौरी के बहुत बड़ी सेना का सामना करना पड़ा था, इस बार का युद्ध बहुत ही भयानक था , यह युद्ध भी सारुंड के समीप ही हुआ था। जब मुहम्मद गौरी को ये पता चला की पृथ्वीराज के पास थोड़ी सी ही सेना है तो वह बहुत खुश हुआ, और सबसे पहले खुरासानी सेना को आक्रमण करने की आज्ञा दे दी, इस आक्रमण को बचने के लिए लोहाना अजानुबाहू अग्रसर हुई, लोहाना की वीरता से मुसलमान सेना की छक्के छुट गयी।पृथ्वीराज की मदद करने हेतु कान्हा भी नागौर से आ पहुंचा, पृथ्वीराज चौहान की वीरता और युद्ध कुशलता को देखकर दुश्मन अपने होश खोने लगे, कान्हा ने भी बड़ी वीरता दिखाई, मुसलमान सेना पृथ्वीराज,कान्हा,चन्द्र,पुय्न्दीर, की वीरता देखकर सहम गयी और कराह उठी,जो हो इस थोड़ी सी सेना ने ऐसा विचित्र काम कर दिखाया जो की असंभव सा लगता है। छोटे से हिन्दू सेना से मुसलमान सेना हताशत हो रहे थे, हिन्दू सेना यवनी सेना को छिन्न-भिन्न करते हुए मुहम्मद गौरी की ओर अग्रसर हुई, ये देखकर गौरी घोडा छोड़ हठी पर सवार हो गया और यावनी सेना चारो ओर से उशे घेर कर उशकी रक्षा करने लगे। सभी राजपूत वीर अपनी प्राणों के ममता को छोड़ कर युद्ध कर रहे थे उन्हें केवल यवनी सेना के खून की प्यास थी। 

मुहम्मद गौरी को हाथी में सवार देख कर जैतसी की सेना गौरी की तरफ अग्रसर हुई, वह युद्ध करते करते एक ऐसे जगह में जा पहुंचा जहाँ से निकल पाना असंभव था, वो चारो ओर से घिर चूका था, इस समय पृथ्वीराज की दृष्टी जैतसी पर पड़ गयी और उन्होंने अपना घोडा जैतसी की तरफ भगाया, उन्होंने चारों ओर से घेरे हुए यवनी सेना को अकेले ही परलोक भेज दिया, जैतसी ने भी बड़ी बहादुरी दिखायी। यवनी सेना पीछे भागने को मजबूर हो गयी,गौरी फिर से हाथी छोड़ घोडा में बैठ युद्ध करने लगा पर कोई काम न आया। छोटे से हिन्दू सेना के सामने उतनी बड़ी मुसलमान सेना पीठ दिखाने को मजबूर हुई, गौरी भी उनके साथ भागा, परन्तु पृथ्वीराज के मना करने पर भी जैतसी ने गौरी का पीछा कर उसे पकड़ लिया और पृथ्वीराज के चरणों में लाकर पटक दिया। 

गौरी को फिर से बंदी बना लिया गया। पृथ्वीराज ने इन सभी झमेलों से निश्चिंत होकर इच्छन कुमारी से विवाह किया और इस आनंद के मौके पर गौरी को धन देकर छोड़ दिया। परन्तु स्त्रियौ के सम्बन्ध में पृथ्वीराज की अभिलासा जैसे जैसे पोरी होती जाती वैसे वैसे और बढ़ती जा रही थी। एक वर्ष के बाद ही पृथ्वीराज इच्छन कुमारी से ट्रिप हो गए और दूसरी की आवश्यकता आ पड़ी। इसी बीच उनकी नज़र कैमाश की बहन पर जा पड़ी, और शादी करने की इच्छा जताई, कैमाश के पिता ने उनकी बातें मान ली और अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह करवा दिया साथ ही कई आदमियों की जान की रक्षा की।


History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

मुहम्मद गौरी

पृथ्वीराज चौहान की उम्र अब सोलह वर्ष की हो चुकी थी इस समय वे नागौर के पास अट्टूपुर में शिकार खेल खेल रहे थे। इसीसमय मीर हुसैन नाम का एक गजनवी मुसलमान जो चंदरबरदाई के अनुसार मुहम्मद गौरी का चचेरा भाई था, चित्ररेखा नाम की एक वैश्या को साथ लेकर अपने साथ लेकर आ पहुंचा बात ये थी की चित्रलेखा वैश्या होने के साथ साथ बहुत ही गुणवती थी। वह सुन्दर होने के साथ साथ विणा बाजाने, गान विद्या आदि में भी बहुत निपुण थी। शहाबुद्दीन चित्रलेखा को बहुत चाहता था। शाहबुद्दीन उतना गुनी नहीं था पर मीर हुसैन गुनी होने के साथ साथ बहुत ही सुन्दर भी था, जब शाहबुद्दीन को उसके और चित्रलेखा के प्रेमप्रसंग के बारे में पता चला तो उसने उन्हें डरा-धमकाना चाहा। 

इसलिए मीर हुसैन, चित्रलेखा के साथ पृथ्वीराज चौहान की अजमेर नगरी आ पहुंचा। पृथ्वीराज चौहान ने जब विदेशी को अपने नगर में देखा तो उसने अपने सामंतों से विचार विमर्श करना उचित समझा, और अंत में पृथ्वीराज ने ये फैसला किया की क्षत्रिये धर्म के अनुसार शरणागत में आये हुए को ठुकराया नहीं जाता, और उन्होंने उसे आश्रय दे दिया, अतः पृथ्वीराज ने उसे अपने सभा के दाहिने ओर स्थान दिया और उसे बहुत ही सम्मान भी दिया। चन्द्रबरदाई के अनुसार पृथ्वीराज से गौरी के बैर का कारण यही था, लेकिन अन्य इतिहासकारों की माने तो गौरी भारत केवल लूट मार करने के लिए आया था उन्होंने किसी भी वैश्या के बारे में कोई जिक्र नहीं किया है। अगर चन्द्रबरदाई का कारण सही है तो ये बात माननी पड़ेगी की एक वैश्या के कारण घोर अनर्थ हो गया। शहाबुद्दीन ने अपने भाई के पीछे एक गुप्त भेदिया भी चोर रखा था ताकि वो ये जान सके की भारतवासी उसके साथ कैसा बर्ताव करते है, उसके गुप्तचर ने देखा की पृथ्वीराज चौहान उसे बहुत इज्जत के साथ रखा हुआ है, और ये सारा हाल मुहम्मद गौरी को जाकर सुना दिया, ये सुनते ही उसने अपने सरदारों के साथ विचार करने लगा, ये सुनकर उसने अपने एक सरदार ततार खां को अजमेर भेज दिया, और कहलवा दिया की अगर तुम चित्रलेखा को लौटा देते हो तो तुम देश में आकर रह सकते हो, ततार खां ने मीर हुसैन को बहुत समझाना चाहा पर वो एक नहीं माना, अंत में वो हार मानकर पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी का वो पत्र दे दिया जिसमे लिखा था की “ तुम मीर हुसैन को अपने राज्य से निकाल दो वरना मैं तुम पर आक्रमण कर दूंगा, इतना सुनते ही पृथ्वीराज चौहान के साथ साथ सारे सामंत क्रोधित हो उठे और एक स्वर में कह उठे “शरणागत को त्यागना क्षात्र धर्म के विपरीत है, मुहम्मद गौरी जो चाहे कर ले हम मीर हुसैन को नहीं निकल सकते है “। आखिर का उस ततार खां को लचर होकर वहां से जाना पड़ा। वह गजनी पहुँच कर सारा हाल गौरी को सुनाया, इतना सुनते ही गौरी ने अपने सभी सरदारों को बुला भेजा और पृथ्वीराज से अपने अपमान का बदला कैसे लिया जाए इस पर विचार विमर्श होने लगा। 

ततार खां ने भारत पर आक्रमण करने की राय दी पर इस पर खुरासान ने ये राय दी की हम भारत को जानते नहीं है इसलिए इस समय अकर्मण करना उचित नहीं होगा क्योंकि शत्रु को जाने बगैर युद्ध करने में कोई बुद्धिमानी नहीं है, इतना सुनते ही उसके दूत भी बोल उठे की हाँ ये बात सत्य है क्योंकि पृथ्वीराज, उसके सामंत और उसके सैनिक कोई साधारण पुरुष नहीं है, गौरी कुछ देर तक शांत बैठा रहा फिर अपने दूत से बोला तुम तो भारत गए हो न तुम मुझे भारत के बारे में बताओ, दूत ने उसे भारत के बारे में बटन शुरू किया की संसार में भारत जैसा कोई दूसरा देश नहीं है, यहाँ सुन्दरता का भंडार है,यहाँ की भूमि उर्वरता से भरी पड़ी है, यहाँ में कई महल है जिसकी सुन्दरता का वर्णन मैं बोल के नहीं कर सकता है, यह देश जन, संपत्ति और वैभव से भरी पड़ी है, इसपर गौरी ने कहा की तब तो ये देश धर्म प्रचार के लिए बहुत ही सही है,इतना कह कर वो चुप हो गया, इसके बाद उस दूत ने कहा कि मैं लगभग आधा भारत घूम चूका हूँ मैंने कोई भी तीर्थ स्थल नहीं छोड़ा है, पर वहां एक बात मुझे देखने को मिली है की वहां पर हिन्दू समाज कई भागों में बंटा हुआ है ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र आदि मैं सबसे मिला पर वो सब अपने काम में अद्भुत है,अगर मैं दूसरी शब्द में कहूं तो भारत एक जन्नत है, इसपर गौरी ने कहा की तो फिर उस जन्नत से लौट क्यों आये? इसपर उस दूत ने कहा की मैं तो बस यहाँ पर आपको रास्ता दिखाने के लिए आया हूँ बिना मुश्लिम धर्म के प्रचार किये उस देश की उन्नति नहीं हो सकती है। पर ये बात है की हिन्दुओं की सकती असीमित है उन्हें पराजय नहीं किया जा सकता, वहां की प्रजा तो अपने राजा के प्रति इतनी भक्त है की उसके एक आदेश से वो जहर तक पी लेते है अतः आप हिंदू को कमजोर न समझे इतना कहकर वो दूत शांत हो गया। गौरी ने कहा की मानता हूँ की ये सब ठीक है पर हिन्दुओं में जितनी वीरता है उतनी ही उनमे फूट भी भरी पड़ी है, इसलिए मैं इन बैटन पर विचार नहीं कर सकता, विचार करने की बात तो ये है की कासिम ने केवल बीस वर्ष की उम्र में ही हिन्दुओं पर विजय प्राप्त की थी। 

महमूद ने भारत पर अठारह बार आक्रमण किया तब हिन्दुवों की ताकत कहाँ चली गयी थी,उनके पास ताकत अवश्य थी पर कुसंगत और कुविचार उनमे उस समय भी भरी पड़ी थी, कासिम में जब देवलपूरी पर आक्रमण किया था तब हिन्दुओं ने कहा था की जब तक उनके मंदिर पर ध्वजा लहराती होगी तबतक उन्हें कोई नहीं हरा पायेगा,कासिम ने सबसे पहले उस ध्वजा को ही काट दिया और तब हिन्दुओं ने ये सोच लिया की अब उनकी हर निश्चित है और बिना परिश्रम के ही कासिम ने उनपर विजय प्राप्त कर ली थी, इतिहास से ये साबित होता है की हिन्दोवों को हराया जा सकता है और और भारत में मुसलमान धरम प्रचार संभव है। इसके बाद गौरी ने अपने सभी सरदारों की सहमती ली और इस्लाम धर्म के प्रचार हेतु भारत पर आक्रमण करने का फैसला लिया गया।



History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

सोमेश्वर और भीमदेव वध

भीमदेव पृथ्वीराज के बढ़ते प्रक्रम से बहुत ही दुखी था वो पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने की सोच रहा था जब ये बात पृथ्वी के कानो तक पहुंची तब उन्होंने अपने सब सामंतों को एकत्र किया और युद्धनिति बनाने लगे, इसी समय लोहाना पांच हज़ार सैनिक लेकर अजमेर आ पहुंचे चामुन्द्राय, जयतव राय देवराय बग्ग्री सभी ने अपनी युद्ध की सहमत्ति दिखाई। पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेना को दो भागों में बनता एक का सेनापतो कैमाश को नियुक्त किया और दूसरा की बागडोर खुद के हाथों में रखी। अब वे युद्ध की लिए निकल पड़े। पृथ्वी की सेना ने भीमदेव के सेना पर इस वेग से आक्रमण किया की भीमदेव के सेना की पाँव उखड गए उन्हें आबू चोर कर भागना पड़ा और इस तरह से आबू पर पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हो गया। चंदरबरदाई के अनुसार यह युद्ध विक्रम सम्बत 1164 में आधी रात के समय हुई थी इसमें दोनो ओर से 16000 सेना मारी गयी थी 13000 भीमदेव की और 3000 पृथ्वीराज की।

भीमदेव बार बार पृथ्वीराज से अपमानित होने के कारण उतीजित हो रहा था, जब उससे रहा न गया तो अपने सभी अधीन राजाओं और सामंतों के साथ मिलकर अजमेर पर धावा बोल दिया जब ये समाचार सोमेश्वर जी के कानो तक जा पहुंचा तब उनसे रहा न गया और एक वीर पुरुष के भांति उन्होंने भी युद्ध का आमंत्रण दिया। इस युद्ध में जयचंद्र ने अजमेर का साथ नहीं दिया क्योंकि पृथ्वी के बढ़ते पराक्रम को देखकर दिल्ली के महाराज अनानाग्पाल ने सोमेश्वर जी के सामने यह प्रस्ताव रखा था की पृथ्वी को दिल्ली का महाराज बना दिया जाए, इससे कन्नोज के राजा बहुत अप्रसन्न हुए थे क्योंकि बड़े नाती होने के कारण दिल्ल्ली पर पहले उनका अधिकार था, पर उन्होंने पृथ्वी को चुना था। उस समय पृथ्वीराज अजमेर में नही थे इसलिए सोमेश्वर राज चौहान अपनी वीर राजपुतों के साथ भीमदेव का मुकाबला करने चल दिए, उन्होंने उसे रोकना चाहा, बहुत भयानक युद्ध हुआ पर अंत में तीन सौ सैनिकों के साथ सोमेश्वर राज चौहान भी मारे गए। जब ये समाचार पृथ्वीराज के पास पहुंचा तो वो क्रोध से अधीर हो गए और उसी समय उन्होंने ये प्रतिज्ञा ली की जब तक वे भीमदेव से इसका बदला नहीं लेंगे तब तक वे किसी तरह का राजसुख को हाथ नहीं लगायेंगे, वो न ही पगड़ी बांधेंगे न ही घी खायेंगे। उन्होंने गुजरात पर आक्रमण करने का अनुमति दे दिया पर सामंतों ने उन्हें समझाया की पहले अजमेर का राज्याभिषेक हो जाना चाहिए, पृथ्वी ने उनकी बात मान ली, भीमदेव दांत पीस कर ही रह गया क्योंकि उसके इतने कोशिश करने पर भी वो अजमेर को हासिल न कर पाया। पृथ्वी का राज तिलक इधर हो गया।

सोमेश्व्वर राज की मृत्यु के बाद से ही पृथ्वी बहुत ही अधीर हो रहे थे उनके दिल में कांटे सा चुभने लगा। कुछ दिन सोच विचार करने के बाद उन्होंने भीमदेव पर आक्रमण करने का फैसला किया। पृथ्वीराज ने आपने सेना लेकर गुजरात के सीमा पर आ पहुंचा, भीमदेव के दूतों ने उन्हें खबर दिया की पृथ्वी अपने 64000 सेना लेकर गुजरात पर आक्रमण करने आया है। यह समाचार सुनकर उसने तुरंत ही एक लाख सेना एकत्र कर पृथ्वीराज से युद्ध करने निकल पड़ा ।पृथ्वीराज की सेना कुछ दूर रह गयी थी उन्होंने चंदरबरदाई को एक लाल पगड़ी और एक चोली देकर भीम देव के पास भेज दिया और ये कहलवा दिया की अगर वो चोली पहन कर युद्ध मैदान में आकर पृथ्वीराज के सामने घुटने टेके तोह ही उश्के प्राण बाख सकते है अन्यथा वो ये लाल पगड़ी बांध कर युद्ध मैदान में आ जाये ताकि उसके सहायको सहित उसके पिता के नाम उश्का रक्त नदी में बहा कर तर्पण किया जायेगा। चंदरबरदाई ने चलते समय एक खेला खेला उसने अपने गले में एक जाल,हाथ में एक कुदाल,दुसरे हाथ में दीपक, और एक सीढ़ी लेकर भीमदेव के इलाके पट्टनपुर पहुंचा, इसे देखकर हजारों की भीड़ उसके साथ हो ली, वह अब राज दरबार पहुंचा, भीमदेव चंदरबरदाई को पहचानता था उसे देखते ही उसने पूछा कहो चाँद ये कैसा स्वांग रचे हो, चन्द ने कहा पृथ्वी कहता है की अगर तुम उसके दर से आकश में छिप जोगे तो वो तुम्हे इस सीढ़ी से दूंढ़ कर मर डालेगा, अगर तुम उसके डर से समुन्द्र की गहराई में छिप जोगे तो वो तुम्हे इस जाल से पकर लेगा, आगर जमीन में छुप जावोगे तो ये कुदाल से खोद कर निक्कालेगा अगर तं उसके डर से कहीं अँधेरे में छिप जावोगे तोह ये दिए से खोज निकलेगा, अगर तुम्हे अपनी प्राण प्यारी है तो ये चोली पहन कर युद्ध में आ जाओ या फिर ये लाल पगड़ी बाँध कर युद्ध मैदान में आ जाओ। भीमदेव ये सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और चाँद को वहीँ मार देना चाहा पर अपने राजपूत गुण के कारण किसी कवी पर हाथ उठाना सही नहीं समझा। उसने युद्ध की आज्ञा दे दी इधर पृथ्वीराज तैयार थे ही। आज के युद्ध में नित्ठुराय को सेनापति बनाया गया, और कान्हा के आंख की पट्टी भी खोल दी गयी। उसके आँख की पट्टी खुलते ही वह अपने शत्रु पर टूट पड़ा और इस वेग से आक्रमण किया की दुश्मन के पाव उखरने लगे उसका सामना करने के लिए मकवाना का पुत्र आगे बढ़ा,, और कान्हा के हाथों मारा गया। मकवाना के पुत्र के मरते ही भीमदेव की सेना थोडा दब गयी पर युद्ध बंद नहीं हुई, इसी समय सारंगराय ने जोर से आक्रमण किया और चौहान सेना का दन्त खट्टा करने लगा ये देख कर पृथ्वीराज चौहान स्वयं घोड़े में बैठ कर युद्ध करने लगे उनके युद्ध मैदान में आते ही चौहान सेना में फिर से वही जोश आ गयी और भीमदेव के सेना को पीछे धकेलने लगी, संध्या का समय होने लगा और बहुत सारे वीर दोनों दलों के मारे जाने लगे।इसी समय भीम देव का सामना पृथ्वी राज से हो गया, दोनों दलों की सेना की तलवार की गूँज से सारा माहौल थर्रा उठा। भीमदेव को पृथ्वीराज ने एकाएक ऐसा वार किया की उसका सर दूर जाकर गिर गया। भीमदेव की मरते ही चारो ओर पृथ्वीराज की जयजयकार होने लगी। सारी गुर्जर सेना पट्टनपूरी की ओर भागने लगी, इस युद्ध में पृथ्वीराज की ओर से 1500 घुड़सवार, पांच सौ हाथी, और पांच हज़ार सिपाही काम आये। 

इसके बाद पृथ्वीराज ने भीमदेव के पुत्र वनराज को गुजरात की गद्दी पर बिठाया और खुद वहां से अजमेर की ओर लौट आये।


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भीमदेव का आबू पर विजय

उनके इस वीर गाथाओं के कारण ना जाने कितने प्रसन्न हुए और न जाने कितने ही दुखी। दुखी होने वालों में से एक था भीम देव सोलंकी। भीमदेव का एक भाई था सारंगदेव और सारंगदेव का आठ पुत्र थे। जब सबसे बड़ा बेटा पिता की गद्दी पर बैठा तो उसने कई तरह से अपनी प्रजा को कष्ट पहुचने लगे इसे देखकर भीमदेव बहुत अप्रसन्न हुए, इसका परिणाम ये हुआ की प्रताप सिंह अपने सातों भाइयों को अपने साथ मिला कर भीमदेव का खुलमखुल्ला भीम देव का विरोधी बन गया और राज्य में लूट मर मचाने लगा, अंत में भीमदेव ने इन्हें रोकने के लिए अपनी सेना से काम लेना शुरू किया अब दोनों पक्ष एक दुसरे को हानि पहुचाने का काम करने लगे । एक बार भीमदेव की सेना एक नद्दी के किनारे पड़ाव डाली हुई थी भीमदेव का फीलवान उनके हठी को लेकर नदी में स्नान करवाने ले गया था प्रताप सिंह के भाइयों ने फीलवान और उश्के हाथियों को वही मार डाला इससे भीमदेव ने उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया अपनी इस दुर्व्यवहार के कारण वे लोग और इस राज्य में रुकना ठीक नहीं समझे और सातों भाई पृथ्वीराज चौहान के दरबार में चले गए। शरणगत के प्रतिपालन से एक राजपूत कभी मुंह नहीं मोड़ सकते इसलिए वे उन्हें दरबार में ही रख लिए। पृथ्वीराज ने उन्हें वहां रख तो लिया पर उनका वहां निर्वाह नहीं हो पाया, केवल मुछ पर ताव देने पर कान्हा ने उन सात भाइयों का सर काट दिया। कान्हा के इस व्यवहार से पृथ्वीराज बहुत दुखित हुए पर वो इतने साहसी और वीर योद्धा को खो नहीं सकते थे। इस कारण से कान्हा सात दिन तक दरबार में नहीं आये लेकिन पृथ्वीराज ने उन्हें दरबार में बुला कर कान्हा के आंख में पट्टी बाँध दी ताकि वो किसी और को मुछ पर ताव देते हुए न देख सके ये पट्टी केवल नहाने समय, सोने समय और युद्ध के समय खुलती थी। जब भीमदेव के पास प्रताप सिंह के सातों भाइयों की मौत का खबर मिला तब ये इर्ष्या की आग और भी धधक उठी अब उश्के पास प्र्रिथ्विराज को निचा दिखाने का एक अवसर मिल गया था, भीमदेव ने अजमेर पर हमला करने की सोची पर वर्षा ऋतू के शुरू हो जाने के कारण वो ऐसा कर न सका। गुजरात का राजा भीमदेव बहुत ही प्रकर्मी था। उसने अपनी पत्नी के सहेलियों चन्द्रावती से आबू के राजा इच्छन कुमारी की चर्चा सुनी थी अब वो उससे शादी करने को ठान लिया उसने राजा सलख को उशकी पुत्री से विवाह करने के लिए पत्र लिख दिया पर पत्र इतने गर्वित शब्दों में लिखा गया था की राजा सलाख ने इसे अपना अपमान समझा और बड़े ही नम्र अक्षरों में लिखा की वो उनकी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज से तय कर चुके है आपको इस विषय में जिद नहीं करनी चाहिए। बातों ही बातों में बात इतनी ज्यादा बढ़ गयी की भीमदेव बहुत क्रिधित हो गया वो राजा सलख को डरा धमका कर चला गया उस्क्व जाते ही राजा सलख ने सोमेश्वर को सारी बातें बता दी और ये भी लिखवा कर भेजवा दिया की शादी जल्द से जल्द हो जानी चाहिए। उस समय पृथ्वीराज दिल्ली में अपने नाना जी के पास थे, इधर भीमदेव ने पृथ्वीराज को पत्र लिख कर समझाना चाहा की वो उनके और इच्छन कुमारी के रास्ते से हट जाए, इधर उसने ये पत्र पृथ्वीराज को लिखा और एक तरफ उशने अपने अधिन राजाओं के साथ मिलकर आबू पर आक्रमण कर दिया। राजा सलख पहले से ही सावधान था उन दोनों राज्यों में बहुत देर तक युद्ध हुआ, परन्तु सारे सरदारों के साथ राजा सलख मारा गया। और इस तरह से आबू पर भीमदेव का अधिकार हुआ।


Sunday, 28 September 2014

History of Prithviraj Chauhan in Hindi - The Indian Last Warrior

रानी इंदिरावती

अजमेर के राजकुवर पृथ्वीराज चौहान और चितोड़ के राजकुवर समर सिंह के बीच बहुत ही घनिष्ट मित्रता थी। अपने बढ़ते वैभव के कारण उज्जैन के महाराज ने अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज से करवाना चाहा, उन दिनों पृथ्वीराज उज्जैन के पास ही शिकार खेल रहे थे। कुल पुरिहितों ने पृथ्वीराज का टिका चढ़ा कर विवाह का बात को पक्का कर लिया इसी बीच उन्हें ये सूचना मिली की गुजरात के राजा भीमदेव ने चितोड़ पर आक्रमण कर दिया है, इसलिए अपने संबंधो के कारण एवं मित्रता का कर्त्तव्य समझ कर समरसिंह की सहायता के लिए चितोड़ अग्रसर हुए। राह में ही पृथ्वीराज की भेंट समरसिंह के ड्डोत से हो गयी उसने पृथ्वीराज को बताया की दस कोश की दूरी पर ही भीमदेव की सेना पड़ाव डाले हुए है और शीघ्र ही दोनों दलों में मुटभेड हो जाएगी। उसने यह भी कहा की समरसिंह के आज्ञा अनुसार वो आपको ही इसकी समाचार देने के लिए आ रहा था। अभी भीमदेव ने आक्रमण किया भी न था की पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेना लिए समरसिंह के पास जा पहुंचे। उन्होंने एकाएक बिना विश्राम किये गुजरात की सेना में आक्रमण कर दिया, अब लचर होकर भीमदेव को अपनी सेना का मुह फेरना पड़ा। समरसिंह और पृथ्वीराज की संयुक्त सेना ने भीमदेव पर भीषण आक्रमण कर दिया पर भीमदेव की सेना अपनी स्थान से न हटी। समरसिंह और पृथ्वीराज ने बहुत वीरता दिखाई। युद्ध होते होते शाम हो गयी पर कुछ भी निर्णय न हो पाया। दुसरे दिन भी युद्ध आरंभ हो गया। आज भीमदेव ने नदी पार कर स्वयं चितोड़ की सेना पर आक्रमण किया, परन्तु वीर समरसिंह ने इस वेग से उसके आक्रमण को रोका की गुजरात की सेना के छक्के छूट गए। पीछे से पृथ्वीराज की सेना ने भी आते हुए गुजरात की सेना में मार काट मचा दी। आज दिन भर के युद्ध में भीमदेव के दस सेनानायक मारे गए। इतने पर भी गुजरात की सेना अपने स्थान में डटी रही पर पृथ्वीराज और समरसिंह एवं उनके वीर सामंतों ने ऐसी वीरता दिखाई की गुजरात की सेना को पीछे हटना पड़ा, गुजरात की सेना पराजित हुई, और भीमदेव वापस गुजरात चली गयी, परन्तु पृथ्वीराज कुछ और दिन चितोड़ में ही रुक गए। भोलाराय भीमदेव केवल भाग जाने का बहाना ही किया था, वह रणभूमि से हटकर कहीं छिपा रहा और एक दिन जब पृथ्वीराज अपने शिविर में सो रहे थे तब अर्धरात्रि के समय आक्रमण कर दिया। इस आकस्मिक आक्रमण से वे उठ खड़े हुए और जिस अवस्था में थे उसी अवस्था में युद्ध करने लगे। आज रात का युद्ध में जैतसी का छोटा भाई, लखी सिंह, वीर बगरी, रूप धन आदि सरदार मारे गए, परन्तु विजयलक्ष्मी पृथ्वीराज को ही जीत का हार पहना गयी और भीमदेव के तरफ से मेरपहाड़ नामक नामी सरदार समेत पांच हज़ार सैनिक इस युद्ध में मारा गया। अब भीमदेव को वास्तव में हार मानना पड़ा और गुजरात वापस जाना पड़ा। पृथ्वीराज स्वयं समरसिंह की सहायता के लिए चितोड़ में रुके हुए थे और इधर इंदिरावती से विवाह का दिन भी आ गया, पृथ्वीराज ने अपनी तलवार पन्न्जुराय को देकर इंदिरावती से विवाह कर लाने के लिए भेज दिया क्योंकि उस समय यह रिवाज थी की यदि किसी कारणवश वर स्वयं बारात में नहीं आ सकता था तो कोई वर का साथी वर का कटार लेकर विवाह रचाने जा सकता था। जब पंज्जुराय ने पृथ्वीराज के स्थान पर विवाह के लिए गया तो उज्जैन के राजा ने कहा कि मुझे ऐसे मनुष्य से विवाह नहीं करनी है जो स्वयं विवाह में न आ कर युद्ध में चला जाए, चंदरबरदाई ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की पर उज्जैन के महाराज ने एक न मानी, परन्तु उन दोनों के कुछ झमेला करने पर उज्जैन के महाराज ने उन्हें पांच दिन का समय दिया। इंदिरावती ने भी सारी बातें सुनी उसने ये प्रतिज्ञा कर ली की वो शादी करेगी तो केवल पृथ्वीराज चौहान से ही। परन्तु जब पांच दिन की अवधि जब निकल गयी तब उज्जैन के राजा क्रोधित होकर पृथ्वीराज के सामंतों को निकल जाने का आदेश दे दिया, पृथ्वीराज के सामंत क्रोधित हो उठे और युद्ध की तयारी करने लगे, तुरंत ही युद्ध होने लगा पृथ्वीराज के वीर सामंत ने उज्जैन के राजा को पकड़ कर अपने वश में कर लिया। उज्जैन के राजा की आंखे खुल गयी और उसने बड़ी धूम धाम से अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज के भेजे हुए साथी से कर दिया, और इस प्रकार ये झमेला शांत हुआ। वो उसे लेकर अजमेर आ गए। थोड़े ही समय में पृथ्वीराज ने रणथम्भ के राजा की कन्या हंसावती से भी विवाह कर लिया।

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मेवात पर आक्रमण

सोमेश्वर राज चौहान ने पृथ्वीराज और जमावती के विवाह के बाद अपना ध्यान फिर से राज्य विस्तार की ओर लगाया। उष समय अजमेर में शांति विराज कर रही थी, प्रजा में किसी तरह का आसंतोष न था। सोमेश्वर राज चौहान शांति के विरोधी न थे जब बातों से बिलकुल भी काम नहीं निकलता था तभी केवल वो शस्त्र का प्रयोग करते थे। उस समय मेवात के राजा मुद्गलराय सोमेश्वर के अधीन थे पर फिर भी वे उनको कर नहीं देते थे इस पर सोमेश्वरराज ने उश्के पास अपना दूत भेजवा कर समझाना चाहा पर वो नहीं माने। अंत में लाचार हो कर उन्हें अक्रामण करना पड़ा परन्तु वे मेवात के सीमा पर जा कर रुक गए वे ये सोचने लगे की बिना कारण ही इतने सारे मनुष्यों का संहार हो जायेगा यदि बातों से ही काम निकल जाता तोह अच्छा होता इसलिए सीमा पर उन्होंने फिर से अपना एक दूत भेज कर उन्हें समझाना चाहा पर मुद्गलराय ने एक न मानी। सोमेश्वर बहुत ही उलझन में पड़ गए की उनसे कर लेना उचित होगा या इतने मनुष्यों की जान बचाना। वे कुछ विचार नहीं कर पाए अंत में उन्होंने इसकी सूचना पृथ्वीराज को अजमेर में दे दी। पृथ्वीराज चौहान ने मन ही मन ये सोचा की पिताजी ये कर क्या रहे है कभी सीधी ऊँगली से भी भला घी निकला है, अब पृथ्वीराज रातों रात मेवात की सीमा में जा पहुंचे उस समय सोमेश्वरराज चौहान सो रहे थे, इधर पृथ्वीराज ने दुश्मन की संख्या का पता लगा कर उनमे आक्रमण कर दिया और मुद्गल राय को पकड़ कर सोमेश्वर राज की सामने पेश किया उन्होंने उसे कैदखाने में डाल दिया। इस तरह से मेवात पर सोमेश्वर राज का अधिकार हो गया।


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मांडवकर से युद्ध

नाहरराय ने पृथ्वी को दिल्ली में तेरह वर्ष की उम्र में देखा था और उनके इस गुण से प्रभावित होकर अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज के सोलह वर्ष की उम्र में कर देने का वचन सोमेश्वर चौहान को दे दिया, जब पृथ्वी 16 वर्ष के हुए और विवाह का समय आया तब नहारराय का विचार परिवर्तित हो गया और अपनी कन्या का विबाह पृथ्वी से करना अनुचित समझा। जो दूत विवाह की बात पक्की करने गया था, जब वो लौटकर सोमेश्वर राज चौहान को ये सारी बात बताया तब सोमेश्वर और सारे सामंत ने इसे अपमान समझा। सोमेश्वर राज ने अपने पुत्र पृथ्वीराज को मांडवर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी। पृथ्वीराज ने अपनी सेना लेकर मांडवकर की ओर दौड़ पड़े। नाहरराय ने मीणाजाती के सरदार पर्वत राय को अपना सेनापति बना कर एक बहुत बड़ी सेना जमा कर ली और युद्ध शुरू हो गया। बहुत की भयानक युद्ध हुआ परन्तु विजयलक्ष्मी पृथ्वी के गले में हार पहना गयी, पर्वतराय मारा गया और नाहरराय राज्य सीमा से स्थित गिरिनार के पर्वत में जा छुपा। अब उन्हें आपनी गलती का एहसास हुआ और अपने दिए हुए वचन पर कायम न रहने के प्रायश्चित स्वरुप उन्हें इतने सारे निर्दोषों का रक्त बहा कर करना पड़ा। अंत में उसने पृथ्वीराज से क्षमा मांग कर अपनी बेटी जमवती का विवाह उनसे कर दिया। पृथ्वीराज जमावती से विवाह कर अजमेर ले आये।


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बाल्य जीवन - शूर वीर योद्धा पृथ्वीराज

उस समय भारत अपने सुख समृद्धि के शीर्ष पर था विदेशियों की नज़र शुरुवात से ही इस देश में थी, वे व्यापारी, साधू, फकीर आदि के रूप में वहां जाकर लोगो को धोखा और राज्य के गुप्त भेद को जानने का प्रयत्न करते रहते थे, एक बार आजमेर में रोशन अली नाम का फकीर प्रजा को धोखा दे रहा था जब पृथ्वी को इस बात का पता चला तब उन्होंने अपने सामंत चामुडराय को उसके पास भेज कर समझाना चाहा पर जब वो नहीं माना तब पृथ्वीराज ने उसकी उँगलियाँ कटवा कर देश से निकलवा दिया। रोशन अली ने सरदार मीर के पास जाकर पृथ्वी की बहुत निंदा की पर उत्तेजित होने पर भी वो उनमे आक्रमण न कर पाया क्योंकि उन्हें अपनी औकात के बारे में अच्छी तरह से पता थी। अब वो सौदा गर के भेष में अजमेर आया साथ में अरब के सरदार भी आया, पृथ्वीराज ने उनसे एक अच्छा सा घोडा देखकर खरीद लिया, कहा जाता है की उस दिन अजमेर में भूकंप आई थी, जिसके कारण तारागढ़ का प्रसिद्ध दुर्ग भूमि में धंस गया था। मीर ने इस बात का फायदा उठाना चाहा और नगर में कुछ सैनिकों के साथ लूटपात मचा दी परन्तु पृथ्वीराज और उनके वीर राजपूत ने उनका इस तरह से सामना किया की वे अपना सब कुछ छोड़ कर अपने प्राण बचाकर वहां से भागा। एक बार गुजरात के राजा भिमदेव सोलंकी ने अजमेर के प्रजा का विश्वास उनके राजा से हटाने और इस बात का फायदा उठा वो अजमेर में हमला करने के फ़िराक में था, इसके लिए उसने अजमेर के प्रसिद्ध कोटेश्वर मंदिर के सोने का शिवलिंग चुराने का प्रयत्न किया पर पृथ्वी राज चौहान ने अपनी वीरता से उस शिवलिंग को बचाया और उसके आदमियों को ऐसा जवाब दिया की भीमदेव को मुंह के बल गिरना पड़ा अब उसका गुस्सा सातवें आसमान में जा पहुंचा था। पृथ्वीराज चौहान की बाल्य जीवन समाप्त होते ही उनके इस तरह के कई वीर गाथाओं के कारण उनका नाम चारों दिशाओं में गूंजने लगा था।



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बाल्य जीवन की कथाएँ 



                आज हम जिस वीर अग्निपुरुष के जीवन के बारे मे जानने जा रहे है, उसका का जन्म प्रसिद्ध चौहान वंश में, विक्रमिये सम्बत्त 1148 वैशाख दिन गुरूवार 24 अक्टूबर को दिल्ली अनागपल तोमर की कनिष्ठ कन्या कमलावती के गर्भ से हुआ था। पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर जी चौहान की राजधानी अजमेर नगरी थी जो की उस समय अपने वैभव और कृति से सोमेश्वर राज चौहान की छत्रछाया में सुसज्जित थी। उस समय सोमेश्वर चौहान की वीरता की कहानी दूर दूर तक फैली हुई थी, उनकी वीरता की गाथा को सुनकर दिल्ली के महाराज अनंगपाल ने उनके और कम्ध्यज्ज्य के बीच हो रहे युद्ध में उन्हें युद्ध में आने का आमंत्रण दिया, कन्नोज के राजा विजयपाल ने भी इस युद्ध में अनंगपाल का साथ दिया, तीनो ने एक साथ युद्ध लडकर विजय हासिल की। इससे दिल्ली के महाराज अन्नाग्पाल इतने खुश हुए की अपनी छोटी बेटी कमलावती का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेस्वर से तय कर दिए। विजयपाल उनके बड़ी बेटी के पति थे। ये तीनो राज्य अब अपने वैभव के साथ अब फलने फूलने लगी थी। अब जब कभी अजमेर पर विपदा आती तो कन्नोज के राजा विजयपाल महाराज सोमेश्वर का साथ देते। एक बार यवन के सेना ने अजमेर पर हमला कर दिया और विजयपाल ने इस संकट के घडी में उनका साथ दिया और दुर्भाग्य वश महाराज विजयपाल की मौत हो गयी। इसके फलस्वरूप उनके बेटे जयचंद्र को कन्नोज का राजा बना दिया गया। चौहान वंश कब से स्थापित हुआ इसका कोई ठीक ठीक प्रमाण तो नहीं मिलता है पर रासो के अनुसार चौहान वंस की उत्पत्ति एक यज्ञ कुंड से हुई जो की दानवों के विनाश के लिए हुई थी। चौहान वंश के 173 वे वंश में बीसलदेव हुए थे उनके राज में ज्यादा कुछ नहीं हुई थी उनके बाद सारंगदेव आये जिन्होंने अजमेर का प्रसिद्ध आना सागर बनवाए,जय सिंह इन्हें के पुत्र थे जो की पृथ्वीराज के दादा जी थे। उस समय केवल चन्द्रबरदाई के जैसे महान कवी ही राज दरबार की शोभा बढ़ाते थे और युद्ध के मैदान में अपना कौशल दिखाते थे। वे अपनी कविताओं के माध्यम से वहां के राजा और प्रजा दोनों का मन जिधर चाहते थे उधर ही फेर देते थे। पृथ्वीराज चौहान बच्चपन से ही न केवल तीर कमान बल्कि भाला , तलवार और शब्द भेदी बाण विद्या में निपुण हो गए थे। श्री राम गुरु जी ने बचपन से ही युद्ध कौशल और रणनीति देखकर ये भविष्यवाणी भी कर दी थी की पृथ्वीराज चौहान का नाम भविष्य में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा। पृथ्वीराज के बाल्य जीवन के बारे में रासो में ज्यादा कुछ नहीं मिलता है।। उस समय राजकुमारों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता था और वहीँ पर उन्हें युद्ध निति और राज पाठ के बारे में शिखाया जाता था। पृथ्वी के गुरु का नाम श्रीराम था। आरंम्भ से ही पृथ्वीराज चौहान ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था इन्होने अपने गुरु श्रीराम से बहुत सारी शिक्षा प्राप्त की थी। पृथ्वीराज चौहान जब गुरुकुल में थे तब भीमदेव ने अजमेर पर हमला कर दिया लेकिन उसे सोमेश्वर जी के हाथों मुंह की खानी पड़ी महाराज सोमेश्वर इस बार भी विजयी रहे। 

इनके बचपन के दोस्त थे निठुर्रय,जैतसिंह, कविचंद्र, दहिराम्भराय, हरसिंह पंज्जुराय,सरंगराय, कन्ह्राराय, सखुली, संजम राय इत्याद्दी के साथ पृथ्वी हमेशा शूरता के ही खेल खेला करते थे। उनमे से कुछ आमुक टिलहे को अमुक गढ़ मानकर वे उनकी रक्षा करते थे और उनमे से कुछ उनको लूटते थे, अक्सर वे ऐसा ही खेला करते थे। इसके बाद वे शिकार खेलने जाते थे। इसी प्रकार से पृथ्वीराज की शिक्षा हुई थी। पृथ्वी के पिता सोमेश्वर राज चौहान जैसे वीर थे वैसे ही वे राजनीती वीसारत भी थे हालाँकि उनकी राज्य केवल अजमेर तक थी पर उन्होंने अपनी राज्य सीमा इतनी तक बढ़ा ली थी ककी उनकी सीमा गुजरात सी जा मिली थी। गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी को उनका राज्य विस्तार अच्छा न लगता था इसलिए वो उनसे अन्दर ही अन्दर इर्ष्या करता था जिसमे पृथ्वी की वीरता की कहानी ने इसमें घी का काम किया। पृथ्वीराज चौहान कभी कभी शिकार खेलते खेलते गुजरात की सीमा तक जा पहुँचते थे, भीमदेव ने तो अपने जासूसों को उन्हें पकड़ कर मार डालने की आज्ञा भी दे रखी थी पर वे सदा ही उनसे बचते चले आये। जब पृथ्वीराज की आयु 13 साल की हुई तो उन्हें राजनीती की शिक्षा देने के लिए उन्हें युवराज का पद दे दिया गया। अपने युवराज काल में ही पृथ्वीराज चौहान ने अपने अद्भभुत प्रतिभा का परिचय दे दिया था। कहा जाता है की पृथ्वीराज चौहान ने केवल 13 की उम्र में जंगल के एक शेर को बिना किसी हथियार के ही मार डाला था। अब पृथ्वी अपने राज महल में ही राजनीती के शिक्षा लेने लगे थे, भीमदेव हार जाने के बावजूद सोमेश्वर और अजमेर नगरी पर अपना राज चाहता था, इसके लिए उसने कई चले भी चली। उसने अजमेर के तरफ दोस्ती का हाथ बढाया, पृथ्वी के मना करने पर भी सोमेश्वर जी ने उन्हें बताया की ये राजनीती है आप अपने महाराज पर भरोसा रखें, अब भीमदेव राजमहल तक आ गया और पीछे से एक गुप्त भेदिया भी ले आया था, उसके जाने के बाद वो भेदिया अजमेर का राजश्री मुहर चुरा कर ले गया, भीमदेव उस राजश्री मुहर का इस्तेमाल वहां का कर बढ़ा कर वहां के प्रजा को अपने राजा के विरुद्ध करना चाहता था।पर जैसे ही पृथ्वी को ये बात पता चली उसने अपने वीर राजपूत दोस्तों पुंडीर,संजम राय, चंदरबरदाई, अर्जुन आदि के साथ गुजरात की ओर चल दिए वहां पर उन्होंने अपना वीरता और बुद्धिमानी का बखूबी प्रदर्शन कर वो राजश्री मुहर अजमेर वापस लाये।

Friday, 26 September 2014

The 47 Ronin Samurai

The 47 Ronin


The story of the 47 Ronin is one of the most celebrated in the history of the samurai. This was perhaps all the more so because it occurred at a time when the samurai class was struggling to maintain a sense of itself - warriors with no war, a social class without a function.

The tale could be said to have begun with the teachings of Yamaga Soko (1622-1685), an influential theorist who wrote a number of important works on the warrior spirit and what it meant to be samurai. His writings inspired a certain Ôishi Kuranosuke Yoshio, a samurai and retainer of Asano Takumi no kami Naganori (1667-1701), who led a branch of the powerful Asano family. 

It happened that Lord Asano was chosen by the shogun, Tokugawa Tsunayoshi, to be one of a number of daimyo tasked with entertaining envoys from the Imperial family. To assist him in this new duty, the Bakufu's highest ranking master of protocol, Kira Kozukenosuke Yoshinaka (1641-1702), was assigned to instruct him in matters of etiquette. Kira, it seems, was a somewhat difficult character and expected Asano to compensate him monetarily for the trouble, which Asano held was simply his duty. The two grew to dislike one another intensely, and Kira made every effort to embarrass his student. Finally, in April of 1702, the situation exploded within the shogun's palace - Kira insulted Asano once again, prompting the latter to draw his sword and swing at him. Kira was only wounded in the attack and Asano was promptly placed under confinement. 

Striking another man in anger was against the law - doing so within the shogun's palace was unthinkable. Asano made little effort to defend himself during questioning except to say that he bore the shogun no ill will and only regretted that he had failed to kill Kira. 
After the o-metsuke (inspector-generals) had completed their investigation of the matter, the shogunate passed down a sentence of death on Asano, ordering him to slit his belly at once. The shogun also decreed that his 50,000-koku fief at Akô in Harima was to be confiscated and his brother Daigaku placed under house arrest.

When the news of the unfortunate event reached Asano's castle, his retainers were thrown into an uproar and argued heatedly over what to do next. Some favored accepting their lot quietly and dispersing as ronin, while another group called for a defense of the castle and an actual battle with the government. Ôishi Kuranosuke, who urged the retainers to give up the castle peacefully and struggle to rehabilitate the Asano family while at the same time preparing to take revenge on Kira, sounded the view that prevailed. 

Accordingly, a band of Asano retainers - now ronin - set out on a carefully planned road to revenge. Kira was no fool, and expecting some sort of attempt on his life by the Asano men increased his personal guard. Ôishi's scheme was therefore to lull their quarry into complacency, biding their time while they waited for the right moment. To this end the ronin hid away a cache of weapons and armor before ostensibly dispersing, some taking up menial jobs while others, like Ôishi himself, let it seem that they had lost any concern for their futures. Ôishi left his wife and began frequenting all of Edo's houses of ill repute, carousing with prostitutes and engaging in drunken brawls. On one occasion, a samurai from Satsuma is supposed to have come across Ôishi drunk in the street and spat upon him, saying that he was no real samurai. 

Needless to say, Kira began to doubt that he was in any real danger, and within a year had relaxed his guard. It was at that point that the ronin struck. 47 of them gathered on 14 December 1702 and, after donning the armor and taking up the weapons from the cache, they set out on their revenge on that same snowy night. Once at Kira's Edo mansion, they divided into two groups and attacked, with one group entering through the rear of the compound while the rest forced their way through the front, battering the gate down with a mallet. Kira's men, many of whom were killed or wounded, were taken completely by surprise but did put up a spirited resistance (one of the ronin was killed in the attack), though ultimately to no avail: Kira was found in an outhouse and presented to Ôishi, who offered him the chance to commit suicide. When Kira made no reply, Ôishi struck off his head with the same dagger that Asano had used to kill himself with. Kira's head was then put in a bucket and carried to the Sengakuji, where Asano was buried. After Ôishi and the others had given the bloody trophy to the spirit of Asano, they turned themselves in. 

The assassination of Kira placed the government in a difficult situation. After all, the 46 survivors now awaiting their fate had lived up to the standards of loyalty expected of true samurai and the ideals propounded by such men as Yamaga Soko. Additionally, the decision to order Asano to commit suicide and confiscate his domain while taking no action against Kira had not been popular (at least one of the inspectors at the time had been demoted for protesting the verdict). Nonetheless, the Bakufu decided that the maintenance of order would once again have to prevail, and so the ronin were ordered to commit suicide - a sentence suggested by the famous Confucian scholar Ogyû Sorai (1666-1728). They were at this time divided up into four groups under guard by four different daimyo, yet once they had all died, their bodies were buried together at the Sengakuji.1 Legend has it that the Satsuma samurai who had spit upon Ôishi in the street came to the temple and slit his own belly to atone for his insults. 

The Revenge of the 47 Ronin continued to spark controversy throughout the Edo Period. One view had it that Ôishi and his men had in fact erred in waiting as long as they had, that in so doing they risked Kira dying (he was, after all, over 60) and their efforts coming to naught. This was, for example, the view of Yamamoto Tsunetomo (author of the famed Hagakure).2 The Confucian scholar Sato Naotaka (1650-1719) criticized the ronin for taking action at all, as the shogun's decision to order Asano to commit suicide should have ended the matter there and then. He also shared Tsunetomo's belief that the ronin ought to have commited suicide at the Sengakuji once their deed was done. In giving themselves up to be judged, they appeared to have hoped to receive a light sentence and therefore continue living -a shameful objective, given their crimes. At the same time, Naotaka reserved his harshest words for Kira, whom he called a coward and whose precipitation of the whole affair had led to so many deaths. 

Other writers did not share those views. Men like Asami Yasuda (1652-1711) defended the actions of the ronin as being appropriate (if not actually challenging the Bakufu's decisions) and Chikamatsu wrote a favorable play (Chushin-gura) that became an instant and timeless classic. In the end, the Ôishi Kuranosuke and his ronin became the stuff of legend, and continue to spawn books, movies, and television shows at a prodigious rate. The Sengakuji is still a popular spot in Tokyo and a place for modern admirers of what many feel were the finest examples of samurai loyalty to emerge from the Edo Period.


Wednesday, 17 September 2014

The History of Bhairav Nath


Lord Bhairav or Bhairon is an incarnation (avatar) of Lord Shiva. Lord Bhairav is widely worshipped by tantriks and yogis to gain various siddhis. Bhairon is regarded as the protector and the kotwal. In astrology Lord Bhairav is the Lord of star (graha) Rahu so to attain the maximum benefits of rahu, people worships Lord Bhairav. Bhairav is a fierce form of Shiva. It is believed that Bhairon is connected to the Mahavidya goddess named Bhairavi who gives Lagna shuddhi (purification of the follower). This purifies and protects the body, chracter, personality and other qualities associated with the follower. Worship of Lord Bhairon is very useful to win over your enemies, success and all materialistic comforts. It is very easy to please lord Bhairav by doing normal worship daily. Coconut, Flowers, Sindoor, Mustard oil, black til etc are offered to the God to get God's Blessings. Bhairava himself has eight manifestations, Kala Bhairava, Asitanga Bhairava, Samhara Bhairava, Ruru Bhairava, Krodha Bhairava, Kapala Bhairava, Rudra Bhirava and Unmatta Bhairava.

Orgin Of Lord Bhairav

The origin of Bhairava or Bhairon can be drawn from the conversation between Lord Brahma and Lord Vishnu described in "Shiv Maha-Puran" where Lord Vishnu asks Lord Brahma who is the supreme creator of the Universe..  Lord Brahma proclaimed himself to be that superior person.  On hearing this, Lord Vishnu chided Lord Brahma for his hasty and overconfident words.  After the debate they decided to seek the answer from the four Vedas.  Rig Veda designated Lord Rudra (Shiva) as supreme as He is the omnipotent deity who controls all living beings.  Yajur Veda replied that He, whom we worship through various Yagnas (Yagam) and other such rigorous rituals, is none other than Shiva, who is supreme.  Sam Veda stated that the respected figure who is worshipped by various Yogis and that Person who controls the entire world is none other than Triambakam (Shiva).  Finally, Atharva Veda said, all human beings can see the Lord through Bhakti Marg and such a deity who can remove all the worries of human beings is indeed Shankar (Shiva).  But both Lord Brahma and Lord Vishnu started laughing in disbelief.

Then Lord Shiva appeared as a powerful divine light.  Lord Brahma stared at Him furiously with his fifth head.  Lord Shiva immediately created one living being and stated that he will be King of Kaal and will be known as Kaal (Death) Bhairav.   Meanwhile, Lord Brahma’s fifth head was still burning with fury and Kaal Bhairav pulled that head from Brahma. Lord Shiva directed Bhairav to go around various holy places (teerths) to get rid of Brahma Hatya.  Kaal Bhairav, with Brahma’s head in his hand, started took bath in various holy places (Teerths), worshipped various Lords, nevertheless saw that Brahma Hatya Dosh was following him all along.  He could not get rid of that affliction. Finally, Kaal Bhairav reached the Moksha Puri, Kashi. The moment Kaal Bhairav entered Kashi, Brahma Hatya Dosha disappeared into the netherworld.  The head of Brahma, (Kapal) fell at a place which was called Kapal Mochan and there was a Teerth which was later called  Kapal Mochan Teerth. Then onwards Kaal Bhairav stationed himself permanently in Kashi, giving shelter to all his devotees.  Those living in or visiting Kashi, must worship Kaal Bhairav and he grants protection to all his devotees.  

Ashtami day (eighth day after Poornima) in the month of Margashirsha is an important day for worshipping Kaal Bhairav.  Besides, Sundays, Tuesdays, Ashtami and Chaturdasi days are very important for worshipping Kaal Bhairav.  A person who circumabulates Lord Kaal Bhairav eight times will be absolved of all the sins committed by him.  A devotee who worships Kaal Bhairav for six months will attain all types of Siddhi. (Kashi Khand, Chapter 31.

Another story of the origin of Bhairava is the tale of Shiva and Shakti. Shakti, the daughter of the king of gods, Daksha chosen Shiva for marriage. Her father disapproved the marriage because he alleged that Shiva resides in jungales with animals and ghosts and hence has no equality whith him. But Shakti decides otherwise and marry Shiva. After some time King Daksha held a Yagana and invited all the gods, but not Shiva. Shakti came to the yagna alone, where Daksha publicly spoke in a belittling manner about Shiva. Shakti could not bear to hear her husband insult and jumpted in the holy fire of Yagna and sacrificed her.

On hearing this Lord destroyed the yagna and killed Daksha by beheading him. Then Shiva carried Shakti's corpse on his shoulders and ran uncontrollably all around the world for days. Since this would eventually destroy all creation, Vishnu used his Sudarshan Chakra to cut Shakti's body into pieces, which then fell all around. These spots where Shakti's body parts fell are now known as Shakti Peethas. In the form of the frightful Bhairava, Shiva is said to be guarding each of these Shaktipeeths. Each Shaktipeeth temple is accompanied by a temple dedicated to Bhairava (Bhairon).

The History of Shah Jahan

Born On: January 5, 1592
Died On: January 22, 1666
Achievements: Founder of the magnificent monument Taj Mahal, Also associated with the Red Fort of Delhi, Jama Masjid of Delhi, Section of Agra Fort, the Wazir Khan Mosque and the Moti Masjid in Lahore, Pakistan

Shah Jahan, his name along with the name of his wife Mumtaz Mahal, being synonymous with the existence and ever growing popularity of Taj Mahal, was a Mughal Emperor of the Southern Asia who reigned from 1627 to 1658. Born as Prince Shihab-ud-din Muhammad Khurram in the Lahore, Pakistan of 1592, Shah Jahan was the son of Emperor Jahangir. His name Khurram, which means "joyful" in Persian, was given to him by his grandfather Akbar the Great. Displaying great military skills at an early age against numerous enemies including Mewar, the Lodi in the Deccan, and Kangra, impressed his father so much that Shah Jahan received the title "Shah Jahan Bahadur" from him. He wasn't just a sharp military leader, but also had an exceptional talent for building and proved it by re-designing buildings within the Agra fort. Among many titles he had earned, "The Builder of the Marvels" was one that was about to be proved the most deserving in the time to come.

The most significant part of Shah Jahan's life history began in 1607 when he was 15 and was betrothed to Arjumand Banu Begum, the granddaughter of a Persian noble and was just 14 at that time. After they got married in 1612, Arjumand became the unquestioned love of his life. Khurram, upon finding her appearance and character elect among all the women of the time, bestowed her with the title of Mumtaz Mahal, meaning "Jewel of the Palace". Although Mumtaz was one among the few wives Shah Jahan had had, according to the official court chronicler Qazwini, the relationship with his other wives "had nothing more than the status of marriage. The intimacy, deep affection, attention and favor which His Majesty had for the Cradle of Excellence (Mumtaz) exceeded by a thousand times what he felt for any other". She was his inseparable companion, accompanying him even on military ventures, a trusted confidante and their relationship was intense.

After she died in 1631 while giving birth to their 14th child, Shah Jahan undertook the work of constructing world's most beautiful monument in her memory. This monument, which entombs Mumtaz Mahal as well as Shah Jahan, came to be known as "Taj Mahal", the building of which took 22 years and 22000 laborers. It was in 1657 that Shah Jahan fell ill, and Dara, Mumtaz Mahal's eldest son assumed responsibility of his father's throne. His other son, Aurangzeb, accompanied by his younger brothers Shuja and Murad marched upon Agra to in order to claim their share. They defeated Dara's armies and declared their father Shah Jahan incompetent to rule and put him under house arrest in Agra Fort. After Shah Jahan died in 1666 in captivity, his body was taken quietly by two men and was laid beside Mumtaz. Apart from the Taj Mahal, one of the Seven Wonders of the World, the Red Fort of Delhi, Jama Masjid of Delhi, Section of Agra Fort, the Wazir Khan Mosque and the Moti Masjid in Lahore, Pakistan, are some of the noble structures associated with the name of Shah Jahan, meaning "King of the World" in Persian.

Thursday, 11 September 2014

The Real Hero Khudiram Bose

Born In: Tamluk, Midnapore, Bengal
Died On: August 11, 1908
Career: Freedom fighter
Nationality: Indian

Khudiram Bose, a young political activist from Bengal, was not only one of the most prominent figures in India's fight for freedom from British rule, but also the youngest revolutionary that the Indian independence movement had witnessed. Khudiram Bose led a life of risk and adventure, never for once flinching from his goal of acquiring freedom for his country. Apart from possessing the spirit of a fighter, Khudiram Bose was also known for his leadership qualities and his services to the society. However, the revolutionary died an unfortunate early death, leaving India bereft of one of the greatest freedom strugglers that the country had ever seen. Khudiram Bose will always be remembered in the history of Indian independence as the proponent of the 'Agni Yuga' or the fiery age, an era which was characterized by young people getting involved in the fight against the British without thinking twice about their own lives. Khudiram Bose was the first martyr of the early twentieth century.

Childhood
Khudiram Bose was born on December 3, 1889 in the small village of Habibpur situated close to the town of Tamluk in Midnapore district of Bengal. Khudiram Bose was the fourth child in a family of three daughters. His parents, Trailokyanath Bose and Lakshmipriya Devi had two sons before the birth of Khudiram but both of them died prematurely. Following the tradition of the yesteryear superstitious society, his mother decided to give up possession of a male child to avoid further deaths in the family. According to reports, her baby boy was sold to her eldest daughter Aparupa in exchange of a measure of foodgrain, also known as 'khud' in Midnapore. After selling her son to her daughter, the mother abandoned all rights to take care of her son. He was thus named Khudiram as he was bought in exchange of 'khud' and henceforth was taken care of only by his sister. Thus, it was right after his birth that Khudiram Bose lost all contact with his mother and father.

Inspiration on the Path to Revolution
Khudiram Bose showed a revolutionary spirit even when he was a mere child. As a child Khudiram Bose loved adventure and was widely known for his courage and bravery on the face of danger. Quite naturally, he also made a very good leader in political groups. It was in the years 1902 - 1903 that Khudiram Bose was inspired to plunge into active freedom struggle. During this time Sri Aurobindo and Sister Nivedita were in Medinipur to deliver a lecture inspiring people to join the freedom struggle against the British. Khudiram Bose was a teenager at that point of time and was bubbling with energy. He was part of student revolutionary groups in Tamluk.

Inspired by the speeches of Sri Aurobindo, Khudiram Bose took part in the secret planning sessions that were held by Sri Aurobindo and Sister Nivedita. Shortly after, in the year 1904, Khudiram Bose shifted from Tamluk to the main town of Medinipur, not only to enroll at the Medinipur Collegiate School but also to take part in the martyr activities that were then a common occurrence in principal towns across India. Khudiram Bose became an active member of a martyrs' club in Medinipur and soon won the attention of even his seniors at the club through his adventurous and leadership qualities, his dedication and his services to the society. 

Apart from Sri Aurobindo and Sister Nivedita, Khudiram Bose also derived inspiration from verses in the Bhagavad Gita and the words of his teacher Satyendranath Bose. In the year 1905, Khudiram Bose became involved with the political party Jugantar to show his disobedience to the British government following the Partition of Bengal the same year. A few months later Khudiram Bose planted bombs close to a police outpost in Medinipur. Though he was not arrested in 1905, police arrested him three years later and announced a death sentence for a similar incident involving killing by bombing.

The Muzaffarpur Incident
Khudiram Bose and Prafulla Chaki from Jugantar were sent to the town of Muzaffarpur in Bihar to carry out the killing of Kingsford, the magistrate of Calcutta Presidency. The two revolutionaries went to Muzaffarpur, adopted the code names of Haren Sarkar and Dinesh Roy respectively, and took shelter in the 'dharmashala' of Kishorimohan Bandopadhyay. Though they wanted Kingsford dead, Khudiram Bose and Prafulla Chaki did not want the bloodshed of innocent people accumulated around a court during the daytime. Therefore they decided to shoot him when he was on his way from the European Club to his home or vice versa. On April 30, 1908, Khudiram Bose and Prafulla Chaki took position outside the European Club and targeted the carriage of Kingsford as it moved out of the club at around 8:30 in the evening. The bombs and the pistol shots hit the carriage. Khudiram Bose and Prafulla Chaki immediately fled the place of crime thinking that their task were complete, only to be informed later that it was the wife and daughter of barrister Pringle Kennedy who were traveling inside Kingsford's carriage. Both Khudiram and Prafulla were filled with remorse for their act of killing two innocent women. The duo were then constantly on the move to escape the eyes of the police. However, the police caught them soon after the incident took place. 

Death of Prafulla Chaki
After the failed attempt to kill magistrate Kingsford in Muzaffarpur, Prafulla Chaki and Khudiram Bose had taken two separate routes to flee the police. On May 1 when his companion Khudiram Bose was arrested, Prafulla Chaki was received in the house of a local in Muzaffarpur who did his best to save his life by providing food, rest and also a train ticket to destination Kolkata. Prafulla Chaki had to change trains on his way from Muzaffarpur to Howrah and it was in the train that misfortune met him in the form of Nandalal Bannerjee, the sub inspector in the British police. Immediately suspecting the young Prafulla Chaki, Nandalal Bannerjee was successful in tracing information which led him to believe that it was Prafulla Chaki who was involved in the Muzaffarpur incident. As soon as Prafulla Chaki left his first train to board the next which would drop him to Howrah, Nandalal Bannerjee was prepared with other police personnel to arrest him. While Prafulla Chaki tried to kill Nandalal Bannerjee by shooting at him, his attempt was unsuccessful, after which he fired the gunshot at himself. Prafulla Chaki took away his own life unable to bear the humiliation of submitting himself to the British authorities.

Incidents leading to Arrest of Khudiram Bose
The Muzaffarpur incident took place at 8:30 in the evening. People were made aware of the killing on the same night and security consisting of armed police constables was stationed at all crucial positions around the country, especially the railway stations. In addition, the British government had also announced Rs 1000 cash prize for the person who could trace the attackers or assist the police in doing so. Knowing that the police would be behind him, Khudiram Bose decided to walk his way to Medinipur rather than board a train. However, ill fate was waiting for him in Oyaini, where he stopped for a glass of water. Constables were immediately on his side when Khudiram Bose stopped by at a tea stall to ask for a glass of water and were curious to know the reason which made him walk such a long way as to make him so tired and dusty. A search which ensued revealed that Khudiram Bose was armed with two revolvers and 37 rounds of ammunition. It is to be remembered that Khudiram Bose was a mere 18 year old kid at the time of the incident and was no match to the strength of the much older constables. 

On May 1, 1908, Khudiram Bose was taken under arrest for his involvement in the Muzaffarpur killings, but the arrest failed to undermine his nationalistic spirit, the young boy crying the slogan 'Vandemataram' even after the entire town of Muzaffarpur accumulated in front of the railway station to take a look at the boy who could commit such a heinous crime. After being taken to the magistrate's office in Muzaffarpur, Khudiram Bose took the blame for the incident which led to the killings and deaths in Muzaffarpur just a day ago wholly upon himself. No attempts would make him reveal the name of either his partner Prafulla Chaki or his revolutionary group in Medinipur. However, police produced before him the body of Prafulla Chaki who had taken away his life by then. The shock was elaborately written upon his face and Khudiram Bose came to know that there was no point in hiding the identity of his group from the police, who would soon trace the revolutionary group under Barindra Kumar Ghosh, which Khudiram Bose and Prafulla Chaki had been working for. The police authorities working under the instructions of the British proved how inhuman they could be when they chopped off the head of the dead Prafulla Chaki and sent it to Kolkata for further confirmation on his and Khudiram Bose's revolutionary links. 

Court Trial and Martyrdom 
Khudiram Bose was put behind bars on May 2, 1908 and the court trial began on the 21st of May. Binodbihari Majumdar and Mr. Mannuk were the prosecutors for the British government, while Upendranath Sen, Kalidas Basu and Kshetranath Bandopadhyay fought in Khudiram Bose's defense. Narendranath Lahiri, Satishchandra Chakraborty and Kulkamal Sen also joined the team of defense lawyers for Khudiram Bose as the trial progressed, the entire team fighting the case for free. On May 23, 1908, Khudiram Bose had to give his first statement in court. Following the advice of his lawyers, Khudiram Bose denied any involvement in the gunshots and bombings that led to the death of the two British women in Muzaffarpur. The trial progressed slowly with the judge announcing that the final verdict would be delivered on June 13. 

It was on the date of the verdict that the prosecutors in the Khudiram Bose case received an anonymous letter warning that bombings would soon take place in Kolkata and this time it would be the Biharis rather than the Bengalis who would be behind the attack. The defense board was now sure that the letter would convince the judge that people other than Khudiram Bose can be involved in the killings in Muzaffarpur. The chief intention of the defense board in the case was to prevent the pronouncement of a death sentence for Khudiram Bose. However, the British Raj was not prepared to let go off an Indian who had already been declared as a revolutionary. The death sentence was awarded to Khudiram Bose. Khudiram Bose embraced the sentence with dignity. In fact he also refused to appeal to the High Court, a practice which existed during those times, saying that he was destined to be hanged to death. 

It was his defense lawyers who convinced Khudiram Bose to make the appeal to the High Court arguing with him that a life sentence instead of a death sentence would mean that Khudiram Bose could live on to serve his motherland. The hearing at High Court took place on July 8, 1908. It was Narendrakumar Basu who fought on behalf of Khudiram Bose in the July High Court trial presenting several arguments which would avert the possibility of a death sentence for a revolutionary who had become an overnight hero for young nationalists in India after the Muzaffarpur incident. The judge at the High Court said that July 13 would be the date for the ultimate verdict on the matter. 

The arguments put forward to the High Court by Narendrakumar Basu would have put the case in favor of Khudiram Bose and could have saved his life, but the British government had already decided that they would award the death sentence to Khudiram Bose. An attempt of appeal made to the Governor General was also turned down and the death sentence for Khudiram Bose was made public on August 11, 1908. The sentence led to a huge uproar among people, young and old, who accumulated in front of the courthouse to shout slogans of protest against the sentence. The local press was vociferous in making the sentiments of the Indians heard. But it was Khudiram Bose who surprised many by embracing his death gracefully by going to the gallows on August 11, 1908 with a smile on his face.

1889: Khudiram Bose was born on December 3.
1904: He shifted from Tamluk to Medinipur and took up revolutionary activities seriously.
1905: He joined political party Jugantar.
1905: He planted bombs in a police station to kill government officials. 
1908: He gets involved in the Muzaffarpur killings on April 30.
1908: He is arrested for the killings on May 1.
1908: His partner in the Muzaffarpur killings Prafulla Chaki kills himself.
1908: The Khudiram Bose trial begins on May 21.
1908: He gives his first statement in court on May 23.
1908: June 13 is announced as the date of verdict.
1908: The trial starts in High Court on July 8.
1908: Final verdict of death sentence announced on July 13.
1908: Appeal to Governor General thwarted and final verdict announced on August 11.

Wednesday, 10 September 2014

Akbar the Great Emperor of Mughal In India

In 1582, King Philip II of Spain received a letter from the Mughal Emperor Akbar of India.

Akbar wrote: "As most men are fettered by bonds of tradition, and by imitating ways followed by their fathers... everyone continues, without investigating their arguments and reasons, to follow the religion in which he was born and educated, thus excluding himself from the possibility of ascertaining the truth, which is the noblest aim of the human intellect. Therefore we associate at convenient seasons with learned men of all religions, thus deriving profit from their exquisite discourses and exalted aspirations." [Johnson, 208]

Akbar the Great chided Philip for the anti-Protestant excesses of the Spanish Counter-reformation. Spain's Catholic inquisitors had by this time mostly rid the country of Muslims and Jews, so turned their murderous attentions to Protestant Christians instead, particularly in Spanish-ruled Holland.

Although Philip II did not heed Akbar's call for religious tolerance, it is indicative of the Mughal emperor's attitudes towards people of other faiths. Akbar is also renowned for his patronage of the arts and sciences. Miniature painting, weaving, book-making, metallurgy, and technological innovations all flourished under his reign.

Who was this emperor, famed for his wisdom and goodness? How did he become one of the greatest rulers in world history?

Akbar's Early Life:

Akbar was born to the second Mughal Emperor Humayan and his teenaged bride Hamida Banu Begum on October 14, 1542 in Sindh, now in Pakistan. Although his ancestors included both Genghis Khan and Timur (Tamerlane), the family was on the run after losing Babur's newly-established empire. Humayan would not regain northern India until 1555.

With his parents in exile in Persia, little Akbar was raised by an uncle in Afghanistan, with help from a series of nursemaids. He practiced key skills like hunting, but never learned to read (perhaps due to a learning disability?). Nonetheless, throughout his life, Akbar had texts on philosophy, history, religion, science and other topics read to him, and could recite long passages of what he had heard from memory.

Akbar Takes Power:

In 1555, Humayan died just months after retaking Delhi. Akbar ascended the Mughal throne at the age of 13, and became Shahanshah ("King of Kings"). His regent was Bayram Khan, his childhood guardian and an outstanding warrior/statesman.

The young emperor almost immediately lost Delhi once more to the Hindu leader Hemu. However, in November of 1556, Generals Bayram Khan and Khan Zaman I defeated Hemu's much larger army at the Second Battle of Panipat. Hemu himself was shot through the eye as he rode into battle atop an elephant; the Mughal army captured and executed him.

When he came of age at 18, Akbar dismissed the increasingly overbearing Bayram Khan and took direct control of the empire and army. Bayram was ordered to make the hajj to Mecca; instead, he started a rebellion against Akbar. The young emperor's forces defeated Bayram's rebels at Jalandhar, in the Punjab; rather than executing the rebel leader, Akbar mercifully allowed his former regent another chance to go to Mecca. This time, Bayram Khan went.

Intrigue and Further Expansion:

Although he was out from under Bayram Khan's control, Akbar still faced challenges to his authority from within the palace. The son of his nursemaid, a man called Adham Khan, killed another adviser in the palace after the victim discovered that Adham was embezzling tax funds. Enraged both by the murder and by the betrayal of his trust, Akbar had Adham Khan thrown from the parapets of the castle. From that point forward, Akbar was in control of his court and country, rather than being a tool of palace intrigues.

The young emperor set out on an aggressive policy of military expansion, both for geo-strategic reasons and as a way to get troublesome warrior/advisers away from the capital. In the following years, the Mughal army would conquer much of northern India (including what is now Pakistan) and Afghanistan.

Akbar's Governing Style:

In order to control his vast empire, Akbar instituted a highly efficient bureaucracy. He appointed mansabars, or military governors, over the various regions; these governors answered directly to him. As a result, he was able to fuse the individual fiefdoms of India into a unified empire that would survive until 1868.

Akbar was personally courageous, willing to lead the charge in battle. He enjoyed taming wild cheetahs and elephants, as well. This courage and self-confidence allowed Akbar to initiate novel policies in government, and to stand by them over objections from more conservative advisers and courtiers.

Matters of Faith and Marriage:

From an early age, Akbar was raised in a tolerant milieu. Although his family was Sunni, two of his childhood tutors were Persian Shias. As an emperor, Akbar made the Sufi concept of Sulh-e-Kuhl, or "peace to all," a founding principle of his law.

Akbar displayed remarkable respect for his Hindu subjects and their faith. His first marriage in 1562 was to Jodha Bai or Harkha Bai, who was a Rajput princess from Amber. As with the families of his later Hindu wives, her father and brothers joined Akbar's court as advisers, equal in rank to his Muslim courtiers. In total, Akbar had 36 wives of various ethnic and religious backgrounds.

Probably even more importantly to his ordinary subjects, Akbar in 1563 repealed a special tax placed on Hindu pilgrims who visited sacred sites, and in 1564 completely repealed the jizya, or yearly tax on non-Muslims. What he lost in revenue by these acts, he more than regained in good-will from the Hindu majority of his subjects.

Even beyond the practical realities of ruling an enormous, predominantly Hindu empire with just a small band Muslim elite, however, Akbar himself had an open and curious mind on questions of religion. As he mentioned to Philip II of Spain in his letter, cited above, he loved to meet with learned men and women of all faiths to discuss theology and philosophy. From the female Jain guru Champa to Portuguese Jesuit priests, Akbar wanted to hear from them all.

Foreign Relations:

As Akbar solidified his rule over northern India, and began to extend his power south and west to the coast, he became aware of the new Portuguese presence there. Although the initial Portuguese approach to India had been "all guns blazing," they soon realized that they were no match militarily for the Mughal Empire on land. The two powers made treaties, under which the Portuguese were allowed to maintain their coastal forts, in exchange for which the promised not to harass Mughal ships that set out from the west coast carrying pilgrims to Arabia for the hajj.

Interestingly, Akbar even formed an alliance with the Catholic Portuguese to punish the Ottoman Empire, which controlled the Arabian Peninsula at that time. The Ottomans were concerned that the huge numbers of pilgrims flooding in to Mecca and Medina each year from the Mughal Empire were overwhelming the resources of the holy cities, so the Ottoman sultan rather firmly requested that Akbar quit sending people on the hajj.

Outraged, Akbar asked his Portuguese allies to attack the Ottoman navy which was blockading the Arabian Peninsula. Unfortunately for him, the Portuguese fleet was completely routed off of Yemen. This signaled the end of the Mughal/Portuguese alliance.

Akbar maintained more enduring relations with other empires, however. Despite the Mughal capture of Kandahar from the Persian Safavid Empire in 1595, for example, those two dynasties had cordial diplomatic ties throughout Akbar's rule. The Mughal Empire was such a rich and important potential trading partner that various European monarchs sent emissaries to Akbar, as well, including Elizabeth I of England and Henry IV of France.

Akbar's Death:

In October of 1605, the 63-year-old Emperor Akbar suffered a serious bout of dysentery. After being sick for three weeks, he passed away at the end of that month. The emperor was buried in a beautiful mausoleum in the royal city of Agra.

The Legacy of Akbar the Great:

Akbar's legacy of religious toleration, firm but fair central control and liberal tax policies that gave commoners a chance to prosper established a precedent in India that can be traced forward in the thinking of later figures such as Mohandas Gandhi. His love of art led to the fusion of Indian and Central Asian/Persian styles that came to symbolize the height of Mughal achievement, in forms as varied as miniature painting and grandiose architecture. This lovely fusion would reach its absolute apex under Akbar's grandson, Shah Jahan, who designed and had built the world-famous Taj Mahal.

Perhaps most of all, Akbar the Great showed the rulers of all nations everywhere that tolerance is not weakness, and open-mindedness is not the same thing as indecisiveness. As a result, he is honored more than four centuries after his death as one of the greatest rulers in human history.

Tuesday, 9 September 2014

Mary Kom’s Olympic medal celebration with her twins in her home in Manipur.

Mary Kom’s Olympic medal celebration


Northeast India is now in the nation’s mind space. The violence in lower Assam. The exodus of people of Northeast origin from Hyderabad and Bangalore. A looming refugee crisis and knee jerk anti-foreigners drive in Manipur. All these have kept the region busy. It seems that MC Mary Kom’s Olympic medal celebration in Northeast is long due.

So what Mary Kom did for the Northeast – or to be precise for Manipur – remains under-reported. Not just Mary Kom, the three others from Manipur who made it to the Olympics – L Devendro Singh (boxing), Laishram Bombayala Devi (archery) and Ng Soniya Chanu (weightlifting) gave youngsters of Manipur something new to dream. Sports will not only get a living for their family, but also accolades and recognition.

As my journalist friend from Imphal Rajkumar Suresh Sigh puts it, Poverty is the biggest adversary of achievement. Ironically, the word ‘poor’ also can be a motivating factor for some people to attain success. The Manipuri Olympian is an embodiment of this thought. The story of Mary Kom’s humble background has been written over and over again. The story of a benign beginning for the other three sportsperson from Manipur who went London is no different from Mary’s.

Deprivation inspires them to accept challenges instead of fading away in oblivion. In doing so, these achievers become a great inspiration for others from the same background. Ethnic unrest, insurgency, counter insurgency and human rights violations, Manipur has it all. For its rural youths, poverty, lack of education and joblessness is the price for being born in Manipur. Their choices are limited. Either joins a rebel insurgent outfit or excels in sports to get a government job in sports quota.

For sports and music loving Manipur, a medal at the Olympic means not just fame and wealth but an inspiration to all the poor people of the world to succeed at the highest level and a motivation to keep on ‘dreaming’.  And perhaps the dream is a contrast to the continuing bloodshed, strikes and protest the state has been over four decades.

Just before packing her bag for London Olympics, Mary Kom told us: “It never failed to amaze me how the sense of deprivation can drive you to your success. I remember my parents insisting me to leave the sport due to the financial burden. Sports is regarded as a leisure activity and it was not meant for the poor. If I had followed their advice I would have been ‘nobody’ toiling hard to make both ends meet. However, a sort of challenge developed in me to prove this notion wrong. So I adopted boxing as a means and I followed it with all my conviction. Even now, I have that conviction and I will not leave it until I win a medal at the Olympics.”

Sharing the same story, Ng Mangi spoke to us about how he used to toil as a manual labourer to support her daughter Ng Soniya Chanu, the youngest of seven siblings, in her dream to pursue weightlifting: “I have always known that Soniya was special kid, I didn’t have a decent job so it was really a struggle to support her dream and feed the rest of the family at the same time. So, I took every petty manual work available to get whatever money I can. But I have never regretted hoping that someday my daughter will bring pride to me.” Indeed Ng Soniya Chanu, who is currently working as an inspector in UP Police, did bring pride to her family. For the poverty striken family a modest job with UP Police was like manna dew from the heaven.

Success was not really a cakewalk for archer Laishram Bombayala Devi and boxer Laishram Devendro Singh. “I have been fortunate compared to other sportspersons from Manipur who had to struggle hard or leave the game for financial reason. But in way I did faced some discouraging moments, I have been told often that I cannot make a living in sports during the initial stage of my career in sports. In a way, those people were only reminding me of the general perception of sports in our society. Every parents hope that someday their children will become a doctor or an engineer instead of an archer or a boxer so that they can earn enough money to lead a comfortable life,” says Bombayala Devi.

In rural Manipur many young Marys and Devendros are trafficked, lured by the rebels to become child soldiers. Their athlete built is used in nation’s destruction. The medals and struggles of the Manipuri sportsmen would, perhaps, change that scene for good.